लोकमाता अहिल्याबाई होलकर के जीवन और विरासत का उत्सव
Celebration of the life and heritage of Lokmata Ahilyabai Holkar
नई दिल्ली, 14 मई 2025
नई दिल्ली स्थित साहित्य अकादमी में एक गरिमामय और विचारोत्तेजक कार्यक्रम का आयोजन किया गया, जिसमें “द लोकमाता: लाइफ एंड लेगेसी ऑफ अहिल्या बाई होलकर” नामक महत्वपूर्ण पुस्तक का विमोचन किया गया। यह पुस्तक डॉ. प्रितीश और प्रो. बंदना झा के संपादन में प्रकाशित हुई है तथा इसमें सात विद्वानों के शोध आधारित लेख संकलित हैं। पुस्तक लोकमाता अहिल्याबाई के जीवन, शासन और सांस्कृतिक योगदान को गहराई से समझने का प्रयास करती है।
लोकमाता अहिल्याबाई होलकर, भारत के इतिहास में एक ऐसी शासिका के रूप में जानी जाती हैं जिन्होंने शासन को धर्म, नीति और लोककल्याण से जोड़ा। उन्होंने कर व्यवस्था में सुधार किया, मंदिरों का निर्माण करवाया, शिक्षा को बढ़ावा दिया और सामाजिक न्याय की नींव रखी।
कार्यक्रम के मुख्य अतिथि श्री सुनील आंबेकर, अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) रहे, जबकि विशिष्ट अतिथि के रूप में श्रीमती आशा लाखड़ा, सदस्य, राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (NCST) उपस्थित रहीं।
कार्यक्रम का संचालन पुस्तक डॉ अपर्णा द्वारा किया है। कार्यक्रम की शुरुआत प्रो. बंदना झा के विद्वतापूर्ण और प्रेरणादायक स्वागत भाषण से हुई, जिसमें उन्होंने पुस्तक की रचना-प्रक्रिया, संरचना और उद्देश्यों पर विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि यह पुस्तक केवल ऐतिहासिक तथ्यों का संग्रह नहीं, बल्कि लोकमाता की बहुआयामी छवि को समग्र रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास है।
प्रो. झा ने पुस्तक के सभी सात लेखकों—डॉ. अपर्णा, सुकृत बनर्जी, संदीप, डॉ. प्रितीश, चिराग, शुभम शेखर और स्वयं प्रो. बंदना झा—के कार्यों को विस्तार से रेखांकित करते हुए बताया कि किस तरह हर अध्याय लोकमाता के जीवन के एक विशेष पक्ष को सामने लाता है।
उन्होंने अपने भाषण में यह भी बताया कि कैसे अहिल्याबाई के शासन की मूल आत्मा न्यायप्रियता, समावेशिता और सांस्कृतिक पुनरुत्थान में निहित थी। उन्होंने इस बात पर भी बल दिया कि आज के भारत में जब नीति और नेतृत्व पर प्रश्नचिह्न खड़े हो रहे हैं, तब अहिल्याबाई जैसे आदर्श शासकों का स्मरण और अध्ययन अत्यंत आवश्यक है।
प्रो. झा ने लेखकों की युवा पीढ़ी से अपेक्षा जताई कि वे केवल ऐतिहासिक जानकारी तक सीमित न रहें, बल्कि इन उदाहरणों से प्रेरणा लेकर भारत की सांस्कृतिक विरासत को पुनर्स्थापित करने में भागीदार बनें। उन्होंने इस पुस्तक को ‘लोकनीति और सांस्कृतिक चेतना’ का दस्तावेज बताया।
राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (NCST) की सदस्य श्रीमती आशा लाखड़ा ने अपने संबोधन में लोकमाता अहिल्याबाई होलकर को ‘आदर्श जननायिका’ के रूप में चित्रित किया। उन्होंने कहा कि अहिल्याबाई का शासन केवल प्रशासनिक दक्षता का उदाहरण नहीं था, बल्कि वह एक समावेशी और संवेदनशील समाज निर्माण की दिशा में ठोस प्रयास था।
लाखड़ा जी ने विशेष रूप से अहिल्याबाई की कर-नीति और चुंगी व्यवस्था (toll system) की सराहना की, जिसमें गरीब और वंचित तबकों पर कर का भार नहीं डाला गया। उन्होंने कहा कि यह नीति विशेष रूप से PVTGs (Particularly Vulnerable Tribal Groups) जैसे समुदायों के लिए आज भी मार्गदर्शक हो सकती है, जिनके अधिकार और हित अक्सर आधुनिक योजनाओं में उपेक्षित रह जाते हैं।
उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि यदि आज भी शासन व्यवस्थाएं अहिल्याबाई की जनकल्याण आधारित दृष्टि को अपनाएं, तो देश के दूरस्थ और वंचित समुदायों की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्थिति में बड़ा सुधार आ सकता है।
लाखड़ा जी ने इस बात पर जोर दिया कि अनुसूचित जनजातियों के उत्थान के लिए जरूरी है कि हम नीतिगत स्तर पर ऐतिहासिक उदाहरणों से सीख लें और उनकी प्रासंगिकता को आधुनिक संदर्भों में समझें। उन्होंने यह भी कहा कि इस पुस्तक के माध्यम से आज की युवा पीढ़ी को एक सशक्त, सक्षम और संवेदनशील महिला नेतृत्व की प्रेरणा मिलेगी।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख श्री सुनील आंबेकर ने लोकमाता अहिल्याबाई होलकर की प्रशंसा करते हुए उन्हें भारतीय संस्कृति की जीवंत मूर्ति बताया। उन्होंने कहा कि देवी अहिल्याबाई के शासनकाल को केवल ऐतिहासिक दृष्टि से नहीं, बल्कि समकालीन भारत की नैतिक और सांस्कृतिक चुनौतियों के समाधान के रूप में देखे जाने की आवश्यकता है।
आंबेकर जी ने अपने वक्तव्य में तीन मुख्य बिंदुओं पर ज़ोर दिया:
1. संस्कृति आधारित नेतृत्व – उन्होंने कहा कि अहिल्याबाई का शासन केवल राजनैतिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक था। उन्होंने भारत भर में मंदिरों का पुनर्निर्माण करवाया, धर्मनिष्ठ आचरण को प्रोत्साहित किया और लोक-परंपराओं का संरक्षण किया।
2. मूल्यों पर आधारित राजनीति – उन्होंने कहा कि आज की राजनीति में जहां अवसरवादिता और तात्कालिक लाभ को प्राथमिकता दी जा रही है, वहां अहिल्याबाई जैसी मूल्य-आधारित राजनीति की आवश्यकता है—जहां नीति, निष्ठा और नैतिकता के संतुलन से समाज का विकास हो।
3. धर्मनिष्ठ कूटनीति और लोकसेवा – आंबेकर जी ने उल्लेख किया कि अहिल्याबाई की नीतियाँ आक्रामक नहीं थीं, बल्कि समन्वयकारी और रचनात्मक थीं। उन्होंने अपनी सत्ता का प्रयोग धर्म के उत्थान और लोकसेवा के लिए किया—यह आधुनिक प्रशासनिक दृष्टिकोण में भी अनुकरणीय है।
अपने वक्तव्य के अंत में उन्होंने यह कहा कि “लोकमाता अहिल्याबाई का जीवन इस बात का साक्षी है कि जब नेतृत्व चरित्र से जुड़ता है, तब शासन सेवा बन जाता है और राजनीति तपस्या।”
कार्यक्रम के अंत में पुस्तक के संपादक डॉ. प्रीतीश ने अत्यंत संवेदनशील और भावभीने शब्दों में धन्यवाद ज्ञापन प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि “यह पुस्तक केवल ऐतिहासिक तथ्यों का संकलन नहीं है, बल्कि यह एक साधना है—उस महान नारी के व्यक्तित्व और कर्तृत्व को समझने और सहेजने की, जिन्होंने शासन को सेवा का माध्यम बनाया।”
उन्होंने सबसे पहले साहित्य अकादमी का आभार व्यक्त किया, जिन्होंने इस ऐतिहासिक विमोचन कार्यक्रम की मेज़बानी की और उसे गरिमा प्रदान की। इसके बाद उन्होंने मुख्य अतिथि श्री सुनील आंबेकर और विशिष्ट अतिथि श्रीमती आशा लाखड़ा के वक्तव्यों की सराहना करते हुए कहा कि उनके विचारों ने कार्यक्रम को एक वैचारिक ऊंचाई प्रदान की और लोकमाता अहिल्याबाई की प्रासंगिकता को और अधिक स्पष्ट किया।
डॉ. प्रीतीश ने प्रो. बंदना झा को ‘इस परियोजना की सूत्रधार’ बताते हुए उनके सतत मार्गदर्शन, विद्वता और संगठनात्मक सहयोग के लिए विशेष धन्यवाद दिया। उन्होंने यह स्वीकार किया कि पुस्तक के सम्पादन, लेखन और विमोचन की प्रक्रिया में प्रो. झा की भूमिका एक मार्गदर्शक दीपस्तंभ की रही, जिन्होंने विषय-वस्तु की गंभीरता और भाषा की गरिमा दोनों बनाए रखीं।
इसके बाद उन्होंने पुस्तक के सभी सह-लेखकों—डॉ. अपर्णा, सुकृत बनर्जी, संदीप, चिराग, शुभम शेखर और प्रो. बंदना झा—का नाम लेकर उनके द्वारा किए गए अध्यायों के शोध, विश्लेषण और दृष्टिकोण की मुक्त कंठ से सराहना की। उन्होंने कहा कि यह पुस्तक “सात दृष्टिकोणों का एक समवेत स्वर” है, जिसमें हर लेखक ने अहिल्याबाई के जीवन के किसी न किसी पक्ष को उजागर किया है—चाहे वह मंदिर निर्माण हो, सामाजिक नीति, धार्मिक समावेशिता या प्रशासनिक कौशल।
डॉ. प्रीतीश ने यह भी कहा कि इस पुस्तक के पीछे वर्षों का शोध, सैकड़ों पन्नों के संदर्भ, और एक साझा सांस्कृतिक प्रतिबद्धता का भाव निहित है। उन्होंने कहा, “हम सबने मिलकर जो लिखा, वह सिर्फ इतिहास नहीं—बल्कि एक दर्पण है, जिसमें भारत का उज्ज्वल, नैतिक और सांस्कृतिक चेहरा प्रतिबिंबित होता है।”
अपने वक्तव्य के अंत में उन्होंने युवाओं से आह्वान किया कि वे केवल पश्चिमी सोच को ही अपना आदर्श न बनाएं, बल्कि भारतीय परंपरा की महान विभूतियों से भी प्रेरणा लें, और राष्ट्रनिर्माण में अपनी भूमिका को पहचानें।
डॉ. प्रीतीश ने अंततः सभी सहभागियों, श्रोताओं, आयोजकों, और मीडिया प्रतिनिधियों का धन्यवाद करते हुए कार्यक्रम के समापन की घोषणा की।